विधि मान्य संविदा के तत्व
अब हम विधिमान्य संविदा के आवश्यक तत्वों पर विचार करते हैँ । विधि द्वारा प्रवर्तनीय प्रत्येक करार संविदा है । प्रश्न यह है किं कौन से करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय हैं अर्थात् करार के विधि द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए किन-क्लि शर्तों का पूरा होना आवश्यक है । 'यह शर्तें ही विधिमान्य संविदा के आवश्यक तत्व हैँ ।
भारतीय संविदा. अधिनियम, 1872 की धारा 10 में प्रबर्तनीय करारों का उल्लेख किया गया है । इसके अनुसार "सब करार संविदायें हैं, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से किसी बिधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विथिपूर्ण उद्देश्य से किये गये हैँ और एतत् द्वारा अभिव्यक्तत: शून्य घोषित नहीं किये गये हैं ।"
विधिमान्य संविदा के निम्नलिखित आवश्यक तत्व स्पष्ट होते हैं…
(1) करार का होना- विधिमान्य संविदा का पहला आवश्यक तत्व करार का होना है । करार से ही संविदा का उदृभव होता है । करार के र्टिन्ए तीन बातें आवश्यक हैँ…
1.एक पक्षकार द्वारा प्रस्ताव (प्रस्थापना) रखा जाना
2. दूसरे पक्षकार द्वारा उसे स्वीकार किया जाना; तथा
3. प्रतिफल का होना
करार के लिए दो पक्ष कार का होना अनिवार्य है लेकिन ' मोहरी खली बनाम महमूद अली' (ए.आईं.आर. । 998 गुवाहटी 92) के मामले में गुवाहटी उच्च न्यायालय द्वारा विक्रय के करार क्रो एकपक्षीय संविदा माना गया है क्योंकि इसमें दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षर होना आवश्यक नहीं है ।
(2) पक्षकारों का संक्षम होना -विधिमान्य संविदा का दूसरा आवश्यक तत्व उसमें के पक्षकारों का संविदा करनेके लिए सक्षम होना है । पक्षकार सक्षम माना जाना है यदि वह…
1. वयस्क है;
2. स्वस्थचित्त है; तथा .
3. संविदा करने के लिए अन्यथा अक्षम नहीं है ।
अवस्य्क व्यक्ति के साथ किया गया करार शून्य होता है जैसा की मोहरी बीबी बनाम 'धर्मदास घोष' [(1903) 30 कलकत्ता 539] के'मामले में अभिनिर्धारित किया गया है । ' यहाँ यहं उल्लेखनीय है कि विधिमान्य संविदा के लिए नागरिकता सम्बन्धी कोई शर्त नहीं है । एक फ्रैंच नागरिक भी यदि वह वयस्क एवं स्वस्थचित्त है तो विधिमान्य संविदा कर सकता है । (शांति निकेतन कोआपरेटिव हाऊसिंग सोसायटी बनाम डिस्टिक्ट रजिस्ट्ररर क्रोआँपरेटिव सोसायटीज अहमदाबाद ए. आईं. आर. 2002 गुजरात 428)
(3) स्वतंत्र सम्मति का होना -विधिमान्य संविदा का तीसरा आवश्यक तत्व पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति का होना है करार पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से किया जाना आवश्यक है । स्वतंत्र सम्मति त्तब कही जाती है जब वह
(1) प्रपीड़नं
(2) असम्यकृ असर
(3.) कपट; एवं
(4.) दुर्व्यपेदेशन
द्वारा नहीं क्री गई हो ।
स्वतंत्र सम्मति के बिना किये गये करार शून्यकरणीय होते हैं । इस सम्बन्ध 'में , 'भारतीय जीवन चीमा निगम बनाम अजीत गंगाधर' (ए.आईं.आर. 1997 कर्नाटक ' 157) का एक उद्धरणीय मामला है जिसमें कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-बीमाकृत व्यक्ति द्वारा तथ्यों क्रो छिपाते हुए कराया गया जीवन बीमा कम्पनी की इच्छा पर निराकृत होने योग्य है ।
बेलस्वी बनाम पाकीरन ( ए.आईं.आर. 2००9 एससी. 32 93 ) के मामले मेँ उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि क्या कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से अधिशासित होने की स्थिति में है, यह एक तथ्य का प्रश्न है । असम्यक असर के लिए किसी एक पक्षकार का दूसरे के अधिशासित होने क्रो स्थिति में होना आवश्यक हैं ।
( 4 ) विधिपूर्ण प्रतिफल एवं उद्देश्य का होना - विधिमान्य संविदा का चौथा आवश्यक तत्व विधिपूर्ण प्रतिफल एबं उद्देश्य का होना है । 'संविदा के लिए प्रतिफल आवश्यक है । प्रतिफल रहित करार प्रवर्तनीय नहीं होता । ऐसे प्रतिफल का पर्याप्त एवं विधिपूर्ण होना भी आवश्यक है । 'मै. जोन टिनसोन एण्ड क. प्रा.लि. बनाम श्रीमती सुरजीत मरुहान'(ए.आईं.आर 1997 एससी.. 1411) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक शेयर होल्डर द्वारा ब्रोकर को एक रुपये मात्र में अपना शेयर अन्तरित्त किये जाने क्रो पर्याप्त प्रतिफल के अभाव में शून्य करार माना ।
विधिपूर्ण प्रतिफल एवं उद्देश्य उसे कहा जाता है जो ---
# बिधि द्वारा निषिद्ध नहीं हो; .
# वह इस प्रकृति का नहीं हो कि यदि उसे अनुज्ञात किया जाये तो वह किसी विधि के उपबंधों को विफल कर देगा;
# कपटपूर्ण नहीं हो;
# किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति क्रो क्षति कारित करने वाला नहीं हो; तथा .
# अनैतिक या लोक नीति के विरूद्ध नहीं हो ।
श्रीमती प्रकाशवती जैन वनाम पंजाब स्टेट इण्डरिट्यल डवलपमेंट कॉरपोरेशन ( ए.आईं.आर३. 2012 पंजाब एण्ड हरियाणा 13 ) के मामले में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा मूल ऋणी द्वारा अभिप्राप्त लाभ के लिए प्रतिभू द्वारा प्रस्तावित संपारिवंक प्रतिभूति को पर्याप्त रूप से प्रवर्तनीय प्रतिफल माना गय
(5. ) अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित किया गया नहीं होना :- विधि मान्य संविदा का पांचबां आवश्यक तत्व करार का अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित किया गया नहीं होना चाहिये । किसी करार को निम्नांकित आधारों पर शून्य घोषित किया जा सकता है
(1. ) दोनों पक्षकारों द्वारा तध्ये की मूल के अधीन किया गया करार;
( 2. ) प्रतिफल के विना किया गया करार;
( 3. ) विवाह में अवरोध पैदा करने वाला करार;
( 4. ) व्यापार में अवरोध पैदा करने वाला करार;
( 5. )विधिक कार्यों में अवरोध पैदा करने वाला करार;
( 6. ) अनिश्चितता के करार;
( 7. ) पण अथेवा बाजी के करार
( 8. )असम्भव घटनाओं परे समाश्रित करार;
( 9. ) असम्भव कार्यं करने के करार, आदि ।
(6) लिखित एवं अनुप्रमाणित होना- ज़हॉ किसी संविदा का भारत में प्रवृत किसी विधि के अधीन लिखित एवं अनुप्रमाणित होना अपेक्षित हो, वहाँ ऐसी संविदा का लिखित एवं अनुप्रमाणित होना आवश्यक है । बिधिमान्य संविदा के यही उपरोक्त आवश्यक तत्व हैँ । इन्हे विधि संविदा की शर्तें भी कहाँ जा सकता है । '
अब हम विधिमान्य संविदा के आवश्यक तत्वों पर विचार करते हैँ । विधि द्वारा प्रवर्तनीय प्रत्येक करार संविदा है । प्रश्न यह है किं कौन से करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय हैं अर्थात् करार के विधि द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए किन-क्लि शर्तों का पूरा होना आवश्यक है । 'यह शर्तें ही विधिमान्य संविदा के आवश्यक तत्व हैँ ।
भारतीय संविदा. अधिनियम, 1872 की धारा 10 में प्रबर्तनीय करारों का उल्लेख किया गया है । इसके अनुसार "सब करार संविदायें हैं, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से किसी बिधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विथिपूर्ण उद्देश्य से किये गये हैँ और एतत् द्वारा अभिव्यक्तत: शून्य घोषित नहीं किये गये हैं ।"
विधिमान्य संविदा के निम्नलिखित आवश्यक तत्व स्पष्ट होते हैं…
(1) करार का होना- विधिमान्य संविदा का पहला आवश्यक तत्व करार का होना है । करार से ही संविदा का उदृभव होता है । करार के र्टिन्ए तीन बातें आवश्यक हैँ…
1.एक पक्षकार द्वारा प्रस्ताव (प्रस्थापना) रखा जाना
2. दूसरे पक्षकार द्वारा उसे स्वीकार किया जाना; तथा
3. प्रतिफल का होना
करार के लिए दो पक्ष कार का होना अनिवार्य है लेकिन ' मोहरी खली बनाम महमूद अली' (ए.आईं.आर. । 998 गुवाहटी 92) के मामले में गुवाहटी उच्च न्यायालय द्वारा विक्रय के करार क्रो एकपक्षीय संविदा माना गया है क्योंकि इसमें दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षर होना आवश्यक नहीं है ।
(2) पक्षकारों का संक्षम होना -विधिमान्य संविदा का दूसरा आवश्यक तत्व उसमें के पक्षकारों का संविदा करनेके लिए सक्षम होना है । पक्षकार सक्षम माना जाना है यदि वह…
1. वयस्क है;
2. स्वस्थचित्त है; तथा .
3. संविदा करने के लिए अन्यथा अक्षम नहीं है ।
अवस्य्क व्यक्ति के साथ किया गया करार शून्य होता है जैसा की मोहरी बीबी बनाम 'धर्मदास घोष' [(1903) 30 कलकत्ता 539] के'मामले में अभिनिर्धारित किया गया है । ' यहाँ यहं उल्लेखनीय है कि विधिमान्य संविदा के लिए नागरिकता सम्बन्धी कोई शर्त नहीं है । एक फ्रैंच नागरिक भी यदि वह वयस्क एवं स्वस्थचित्त है तो विधिमान्य संविदा कर सकता है । (शांति निकेतन कोआपरेटिव हाऊसिंग सोसायटी बनाम डिस्टिक्ट रजिस्ट्ररर क्रोआँपरेटिव सोसायटीज अहमदाबाद ए. आईं. आर. 2002 गुजरात 428)
(3) स्वतंत्र सम्मति का होना -विधिमान्य संविदा का तीसरा आवश्यक तत्व पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति का होना है करार पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से किया जाना आवश्यक है । स्वतंत्र सम्मति त्तब कही जाती है जब वह
(1) प्रपीड़नं
(2) असम्यकृ असर
(3.) कपट; एवं
(4.) दुर्व्यपेदेशन
द्वारा नहीं क्री गई हो ।
स्वतंत्र सम्मति के बिना किये गये करार शून्यकरणीय होते हैं । इस सम्बन्ध 'में , 'भारतीय जीवन चीमा निगम बनाम अजीत गंगाधर' (ए.आईं.आर. 1997 कर्नाटक ' 157) का एक उद्धरणीय मामला है जिसमें कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-बीमाकृत व्यक्ति द्वारा तथ्यों क्रो छिपाते हुए कराया गया जीवन बीमा कम्पनी की इच्छा पर निराकृत होने योग्य है ।
बेलस्वी बनाम पाकीरन ( ए.आईं.आर. 2००9 एससी. 32 93 ) के मामले मेँ उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि क्या कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से अधिशासित होने की स्थिति में है, यह एक तथ्य का प्रश्न है । असम्यक असर के लिए किसी एक पक्षकार का दूसरे के अधिशासित होने क्रो स्थिति में होना आवश्यक हैं ।
( 4 ) विधिपूर्ण प्रतिफल एवं उद्देश्य का होना - विधिमान्य संविदा का चौथा आवश्यक तत्व विधिपूर्ण प्रतिफल एबं उद्देश्य का होना है । 'संविदा के लिए प्रतिफल आवश्यक है । प्रतिफल रहित करार प्रवर्तनीय नहीं होता । ऐसे प्रतिफल का पर्याप्त एवं विधिपूर्ण होना भी आवश्यक है । 'मै. जोन टिनसोन एण्ड क. प्रा.लि. बनाम श्रीमती सुरजीत मरुहान'(ए.आईं.आर 1997 एससी.. 1411) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक शेयर होल्डर द्वारा ब्रोकर को एक रुपये मात्र में अपना शेयर अन्तरित्त किये जाने क्रो पर्याप्त प्रतिफल के अभाव में शून्य करार माना ।
विधिपूर्ण प्रतिफल एवं उद्देश्य उसे कहा जाता है जो ---
# बिधि द्वारा निषिद्ध नहीं हो; .
# वह इस प्रकृति का नहीं हो कि यदि उसे अनुज्ञात किया जाये तो वह किसी विधि के उपबंधों को विफल कर देगा;
# कपटपूर्ण नहीं हो;
# किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति क्रो क्षति कारित करने वाला नहीं हो; तथा .
# अनैतिक या लोक नीति के विरूद्ध नहीं हो ।
श्रीमती प्रकाशवती जैन वनाम पंजाब स्टेट इण्डरिट्यल डवलपमेंट कॉरपोरेशन ( ए.आईं.आर३. 2012 पंजाब एण्ड हरियाणा 13 ) के मामले में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा मूल ऋणी द्वारा अभिप्राप्त लाभ के लिए प्रतिभू द्वारा प्रस्तावित संपारिवंक प्रतिभूति को पर्याप्त रूप से प्रवर्तनीय प्रतिफल माना गय
(5. ) अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित किया गया नहीं होना :- विधि मान्य संविदा का पांचबां आवश्यक तत्व करार का अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित किया गया नहीं होना चाहिये । किसी करार को निम्नांकित आधारों पर शून्य घोषित किया जा सकता है
(1. ) दोनों पक्षकारों द्वारा तध्ये की मूल के अधीन किया गया करार;
( 2. ) प्रतिफल के विना किया गया करार;
( 3. ) विवाह में अवरोध पैदा करने वाला करार;
( 4. ) व्यापार में अवरोध पैदा करने वाला करार;
( 5. )विधिक कार्यों में अवरोध पैदा करने वाला करार;
( 6. ) अनिश्चितता के करार;
( 7. ) पण अथेवा बाजी के करार
( 8. )असम्भव घटनाओं परे समाश्रित करार;
( 9. ) असम्भव कार्यं करने के करार, आदि ।
(6) लिखित एवं अनुप्रमाणित होना- ज़हॉ किसी संविदा का भारत में प्रवृत किसी विधि के अधीन लिखित एवं अनुप्रमाणित होना अपेक्षित हो, वहाँ ऐसी संविदा का लिखित एवं अनुप्रमाणित होना आवश्यक है । बिधिमान्य संविदा के यही उपरोक्त आवश्यक तत्व हैँ । इन्हे विधि संविदा की शर्तें भी कहाँ जा सकता है । '
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